चंद्रशेखर वेंटक रमन
Chandrashekhara Venkata Raman


C. V. Raman

चन्द्रशेखर वेंकट रमन का जन्म 7 नवम्बर सन् 1888 ई. में तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली स्थान पर हुआ था। इनके पिता चन्द्रशेखर अय्यर भौतिक विज्ञान और गणित के प्राध्यापक थे। इनकी माता का नाम पार्वती अम्मल था। चन्द्रशेखर वेंकट रमन अपने माता-पिता के दूसरे नंबर की संतान थे। रमन का विवाह 6 मई 1907 को लोकसुन्दरी अम्मल से हुआ। उनके दो पुत्र थे – चंद्रशेखर और राधाकृष्णन। रमन का स्वर्गवास 21 नवम्बर 1970 को बैंगलोर में हो गया। उस समय उनकी आयु 82 साल थी।

चन्द्रशेखर वेंकट रमन की प्रारम्भिक शिक्षा विशाखापत्तनम में ही हुई। रमन अपनी कक्षा के बहुत ही प्रतिभाशाली विद्यार्थी थे । वर्ष 1902 में उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास में दाखिला लिया। वर्ष 1904 में उन्होंने बी ए की परीक्षा मे प्रथम स्थान व भौतिक विज्ञान में ‘गोल्ड मैडल’ प्राप्त किया। इसके बाद उन्होंने ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ से ही एम. ए. (भौतिक शास्त्र) में प्रवेश लिया। एम. ए. के दौरान रमन कक्षा में कम ही जाते और कॉलेज की प्रयोगशाला में कुछ प्रयोग और खोजें करते रहते। उनके प्रोफेसर उनकी प्रतिभा को भली-भांति समझते थे इसलिए उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक पढ़ने देते थे। प्रोफ़ेसर आर. एल. जॉन्स ने उन्हें अपने शोध और प्रयोगों के परिणामों को ‘शोध पेपर’ के रूप में लिखकर लन्दन से प्रकाशित होने वाली ‘फ़िलॉसफ़िकल पत्रिका’ को भेजने की सलाह दी। उनका यह शोध पेपर सन् 1906 में पत्रिका के नवम्बर अंक में प्रकाशित हुआ। उस समय रमन केवल 18 वर्ष के थे। वर्ष 1907 में उन्होंने उच्च विशिष्टता के साथ एम ए की परीक्षा उतीर्ण कर ली।

उन दिनों प्रतिभाशाली व्यक्ति के लिए भी वैज्ञानिक बनने की सुविधा नहीं थी। अत: रमन भारत सरकार के वित्त विभाग की प्रतियोगिता में बैठ गए। रमन प्रतियोगिता परीक्षा में प्रथम आए और जून, 1907 में आप असिस्टेंट एकाउटेंट जनरल बनकर कलकत्ते चले गए। उस समय ऐसा प्रतीत होता था कि आपके जीवन में स्थिरता आ गई है, पर रमन एक दिन कार्यालय से लौट रहे थे कि एक साइन बोर्ड देखा, जिस पर लिखा था 'वैज्ञानिक अध्ययन के लिए भारतीय परिषद (इंडियन अशोसिएशन फार कल्टीवेशन आफ़ साईंस)'। तभी रमन ट्राम (गाड़ी) से उतरे और परिषद् कार्यालय में पहुँच गए। वहाँ पहुँच कर अपना परिचय दिया और परिषद् की प्रयोगशाला में प्रयोग करने की आज्ञा पा ली।

रमन ने वर्ष 1917 में सरकारी नौकरी छोड़ दी और ‘इण्डियन एसोसिएशन फॉर कल्टिवेशन ऑफ साइंस’ के अंतर्गत भौतिक शास्त्र में पालित चेयर स्वीकार कर ली। सन् 1917 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक के तौर पर उनकी नियुक्ति हुई।‘ऑप्टिकस’ के क्षेत्र में उनके योगदान के लिये वर्ष 1924 में रमन को लन्दन की ‘रॉयल सोसाइटी’ का सदस्य बनाया गया और यह किसी भी वैज्ञानिक के लिये बहुत सम्मान की बात थी।‘रमन इफ़ेक्ट’ की खोज 28 फरवरी 1928 को हुई। रमन ने इसकी घोषणा अगले ही दिन विदेशी प्रेस में कर दी। प्रतिष्ठित वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ ने उसे प्रकाशित किया। उन्होंने 16 मार्च, 1928 को अपनी नयी खोज के ऊपर बैंगलोर स्थित साउथ इंडियन साइन्स एसोसिएशन में भाषण दिया। इसके बाद धीरे-धीरे विश्व की सभी प्रयोगशालाओं में ‘रमन इफेक्ट’ पर अन्वेषण होने लगा।

सन् 1921 में वेंकट रमन को ऑक्सफोर्ड, इंग्लैंड से विश्वविद्यालयीन कांग्रेस में भाग लेने के लिए निमंत्रण प्राप्त हुआ। वहाँ उनकी मुलकात लार्ड रदरफोर्ड, जे. जे. थामसन जैसे विश्वविख्यात वैज्ञानिकों से हुई। इंग्लैंड से भारत लौटते समय ‘रमन प्रभाव’ की खोज के लिए प्रेरणा मिली। दरअसल, कलकत्ता विश्वविद्यालय पहुँचकर वेंकटरमन ने अपनें सहयोगी डॉ. के. एस. कृष्णन के साथ मिलकर जल तथा बर्फ के पारदर्शी प्रखंडों (ब्लॉक्स) एवं अन्य पार्थिव वस्तुओं के ऊपर प्रकाश के प्रकीर्णन पर अनेक प्रयोग किए। तमाम प्रयोगों के बाद वेंकटरमन अपनी उस खोज पर पहुँचे, जो ‘रमन प्रभाव’ नाम से विश्वविख्यात है। आप सोच रहे होंगें कि आखिर ये रमन प्रभाव क्या है और भौतिकी की दुनिया में इसका कितना प्रभाव है? रमन प्रभाव के अनुसार जब एक-तरंगीय प्रकाश (एक ही आवृत्ति का प्रकाश) को विभिन्न रसायनिक द्रवों से गुजारा जाता है, तब प्रकाश के एक सूक्ष्म भाग की तरंग-लंबाई मूल प्रकाश के तरंग-लंबाई से भिन्न होती है। तरंग-लंबाई में यह भिन्नता ऊर्जा के आदान-प्रदान के कारण होता है। जब ऊर्जा में कमी होती है तब तरंग-लंबाई अधिक हो जाता है तथा जब ऊर्जा में बढोत्तरी होती है तब तरंग-लंबाई कम हो जाता है। यह ऊर्जा सदैव एक निश्चित मात्रा में कम-अधिक होती रहती है और इसी कारण तरंग-लंबाई में भी परिवर्तन सदैव निश्चित मात्रा में होता है। दरअसल, प्रकाश की किरणें असंख्य सूक्ष्म कणों से मिलकर बनी होती हैं, इन कणों को वैज्ञानिक ‘फोटोन’ कहते हैं। वैसे हम जानतें हैं कि प्रकाश की दोहरी प्रकृति है यह तरंगों की तरह भी व्यवहार करता है और कणों (फोटोनों) की भी तरह। रमन प्रभाव ने फोटोनों के ऊर्जा की आन्तरिक परमाण्विक संरचना को समझने में विशेष सहायता की है। किसी भी पारदर्शी द्रव में एक ही आवृत्ति वाले प्रकाश को गुजारकर ‘रमन स्पेक्ट्रम’ प्राप्त किया जा सकता है।

सन 1933 में वेंकट रमन भारतीय विज्ञान संस्थान के पहले भारतीय निदेशक बनाए गए, उन्होंने संस्था की नीतियों व कार्यक्रमों में बहुत तेजी से रचनात्मक बदलाव किया। ऐसा करके वे उस संस्थान को बेहतर बनाना चाहते थे। रमन के दिमाग में हमेशा ये सवाल घुमते – रहते थे कि वैज्ञानिक प्रतिभाओं में युरोप और अमेरिका श्रेष्ट क्यों है? भारतीय वैज्ञानिक प्रतिभाएं श्रेष्ट क्यों नहीं हैं? विज्ञान के क्षेत्र में भारत को श्रेष्ट बनाने के लिए उन्होंने देश के नौजवानों को विज्ञान के प्रति जाग्रत किया। इसके लिए रमन को देश के कई महानगरों में तरह – तरह की सभाओं को संबोधित करना पड़ा। उनके भाषण से बहुत से नौजवानों को प्रेरणा मिली। जिसकी बदौलत विक्रम साराभाई, होमी जहांगीर भाभा और के.आर. रामनाथन जैसे युवा वैज्ञानिकों ने पूरे विश्व में अपना और अपने देश का नाम रोशन किया।

रमन सुबह साढ़े पाँच बजे परिषद की प्रयोगशाला में पहुँच जाते और पौने दस बजे आकर ऑफिस के लिए तैयार हो जाते। ऑफिस के बाद शाम पाँच बजे फिर प्रयोगशाला पहुँच जाते और रात दस बजे तक वहाँ काम करते। यहाँ तक की रविवार को भी सारा दिन वह प्रयोगशाला में अपने प्रयोगों में ही व्यस्त रहते। वर्षों तक उनकी यही दिनचर्या बनी रही। उस समय रमन का अनुसंधान संगीत-वाद्यों तक ही सीमित था। उनकी खोज का विषय था कि वीणा, वॉयलिन, मृदंग और तबले जैसे वाद्यों में से मधुर स्वर क्यों निकलता है। अपने अनुसंधान में रामन ने परिषद के एक साधारण सदस्य आशुतोष डे की भी सहायता ली। उन्होंने डे को वैज्ञानिक अनुसंधान के तरीकों में इतना पारंगत कर दिया था कि डे अपनी खोजों का परिणाम स्वयं लिखने लगे जो बाद में प्रसिद्ध विज्ञान पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए। रमन का उन व्यक्तियों में विश्वास था जो सीखना चाहते थे बजाय उन के जो केवल प्रशिक्षित या शिक्षित थे। वास्तव में जल्दी ही उन्होंने युवा वैज्ञानिकों का एक ऐसा दल तैयार कर लिया जो उनके प्रयोगों में सहायता करता था। वह परिषद के हॉल में विज्ञान को लोकप्रिय बनाने के लिए भाषण भी देने लगे, जिससे युवा लोगों को विज्ञान में हुए नये विकासों से परिचित करा सकें। वह देश में विज्ञान के प्रवक्ता बन गये। रमन की विज्ञान में लगन और कार्य को देखकर कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति आशुतोष मुखर्जी जो 'बगाल के बाघ' कहलाते थे, बहुत प्रभावित हुए।

चन्द्रशेखर वेंकट रमन ने सन् 1943 में बैंगलोर के समीप रामन रिसर्च इंस्टीट्यूट की स्थापना की । इसी संस्थान में वे जीवन के अंत तक अपने प्रयोग करते रहे । सन 1970 में इस महान भारतीय और वैज्ञानिक का देहांत हो गया । हम सब को चन्द्रशेखर वेंकट रमन के कार्यों और उपलब्धियों पर बड़ा गर्व है। वे एक महान भौतिकशात्री और वैज्ञानिक के साथ-साथ महामानव भी थे।

पुरस्कार:-

चंद्रशेखर वेंकट रमन को विज्ञान के क्षेत्र में योगदान के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।

1. वर्ष 1924 में रमन को लन्दन की ‘रॉयल सोसाइटी’ का सदस्य बनाया गया।
2. ‘रमन प्रभाव’ की खोज 28 फ़रवरी 1928 को हुई थी। इस महान खोज की याद में 28 फ़रवरी का दिन भारत में हर वर्ष ‘राष्ट्रीय विज्ञान दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
3. वर्ष 1929 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस की अध्यक्षता की।
4. वर्ष 1929 में नाइटहुड दिया गया।
5. वर्ष 1930 में प्रकाश के प्रकीर्णन और रमण प्रभाव की खोज के लिए उन्हें भौतिकी के क्षेत्र में प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिला।
6. वर्ष 1954 में भारत रत्न से सम्मानित।
8. वर्ष 1957 में लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

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चंद्रशेखर वेंटक रमन
Chandrashekhara Venkata Raman

पूरा नाम चंद्रशेखर वेंटक रमन
जन्म 7 नवंबर, 1888
जन्म स्थान तिरुचिरापल्ली (तमिलनाडू)
पिता चन्द्रशेखर अय्यर
माता पार्वती अम्मल (Jesse Hauk. Shera)
मृत्यु 21 नवंबर, 1970
मृत्यु स्थान बंगलुरु, कर्नाटक, भारत
नागरिकता भारतीय
कर्म-क्षेत्र भौतिक शास्त्र
शिक्षा 1906 में M.Sc. (भौतिक शास्त्र)
पुरस्कार-उपाधि भौतिकी में नोबल पुरस्कार (1930),
भारत रत्न (1954),
लेनिन शांति पुरस्कार (1957),